Sunday, June 27, 2021

छत की मुँडेर

मेरी छत की मुंडेर,
चिड़ियों की वो टेर,
इन वातानुकूलित डिब्बों में खो गई,
बचपन के क़िस्सों संग अकेली ही सो गई,
होली के बिखरे रंग फीके हैं पड़ गए,
वो इश्क के निशां, सेल फोन में गढ़ गए।
सर्दियों की वो धूप, हीटर में बंद है,
हाय रे, वो स्वेटर सिलाई भी अब दिखती ही चंद है।
मेरी छत की मुंडेर,
वो रिश्तों का पूरा ढेर,
सूना सा हो गया,
तारों का गिनना भी 
अब लाइक कमैंट्स में खो गया।
मेरी छत की मुंडेर,रहती है अब खामोश,
एक सदी सी गुज़री,नहीं आया उसे होश।

-निधि सहगल

छत की मुँडेर

मेरी छत की मुंडेर, चिड़ियों की वो टेर, इन वातानुकूलित डिब्बों में खो गई, बचपन के क़िस्सों संग अकेली ही सो गई, होली के बिखरे रंग फीके हैं पड़ गए...