Sunday, June 27, 2021

छत की मुँडेर

मेरी छत की मुंडेर,
चिड़ियों की वो टेर,
इन वातानुकूलित डिब्बों में खो गई,
बचपन के क़िस्सों संग अकेली ही सो गई,
होली के बिखरे रंग फीके हैं पड़ गए,
वो इश्क के निशां, सेल फोन में गढ़ गए।
सर्दियों की वो धूप, हीटर में बंद है,
हाय रे, वो स्वेटर सिलाई भी अब दिखती ही चंद है।
मेरी छत की मुंडेर,
वो रिश्तों का पूरा ढेर,
सूना सा हो गया,
तारों का गिनना भी 
अब लाइक कमैंट्स में खो गया।
मेरी छत की मुंडेर,रहती है अब खामोश,
एक सदी सी गुज़री,नहीं आया उसे होश।

-निधि सहगल

Sunday, June 21, 2020

ग़ज़ल


     2122          2122         212

१)लाज का घूँघट उठाओ तो सही
चाँद सा मुखड़ा दिखाओ तो सही

२)नफ़रतें मिटती रहेंगी खुद-ब-खुद
प्यार के गुलशन खिलाओ तो सही

३)बंदिशें ही क़त्ल करती वस्ल का
तुम हया की तह हटाओ तो सही

४)मरने"को तैयार हैं हम बारहा
तीर नजरों से चलाओ तो सही

५)जिस्म है फ़ानी भला किस काम का
रूह 'निधि' की आजमाओ तो सही


-निधि सहगल 'विदिता'

Monday, April 27, 2020

दोहा छंद (कलम की ताकत)

दोहा लेखन
विषय-*कलम की ताकत*

1)भर स्याही के रंग को,कलम बाँटती ज्ञान।
    अंकों की माला बना, बढ़ा रही है शान।।

2)कल्पक हिय के भाव को, कलम पंख दे जाय।
   अलंकार, रस, गीत से, पृष्ठ वही चमकाय।।

3)देख कलम की धार को, नत होवे तलवारि।
    तन को यह छूवे नहीं, मन घायल कर मारि।।

4)वेदों की महिमा लिखे, धन्य कलम का काम।
    ग्रंथ अनूठे लिख रही,सहज रूप दे नाम।।

5)समय चाक में पिस गए,युग के बरस अपार।
    कलम अकेली चल रही, लिए अडिग पतवार।।

-निधि सहगल 'विदिता'

Friday, April 24, 2020

विरह

*अनवसिता छंद*
111 122,211 22

1)प्रियतम रूठे, बादल रोया,
जल नयनों का, रात न सोया,
पलछिन ढूंढें, ओझल तारे,
दिवस बिताये, बाट निहारे।

2)पग पर छाले, पंथ कटीला,
इट उत डोले, प्रेम हठीला,
मनस नवाऊँ, साजन आगे,
विरह सुनाऊँ, अस्मित त्यागे।

3)मन दुख जानो,व्याकुल हूँ मैं,
अब हठ छोड़ो, आतुर हूँ मैं,
हिय लग जाऊँ, साजन तोहे,
मधुर पुकारें, प्रीतम मोहे।

-निधि सहगल'विदिता'

Tuesday, April 7, 2020

टूटे पंखों की लेखनी

टूटे पंखों से लिख दूँ मैं
बना लेखनी वो कविता
इन्द्रपर्णी वर्णों से उकेरूँ
कोरे पत्रों पर जीविता,

प्रणय गीत के रंग सजाकर
प्रेम सुधा रस बरसाऊं
विरह वेदना स्वर से फिर मैं
प्रेम अग्न विषाद बढ़ाऊ

शौर्य तेज की लौ जब चमके,
बनती शब्दों की सविता
टूटे पंखों से लिख दूँ मैं
बना लेखनी वो कविता

करुणा का जब भाव बहे तो
मीरा के पद मैं छेड़ूँ
नयन नीर की गलियाँ फिर मैं
हास की स्वर्णा से जोडूं

वर्णो की महारास रचाकर
मधुरमयी गाऊँ निविता
टूटे पंखों से लिख दूँ मैं
बना लेखनी वो कविता

बने प्रेरणा जीवन की जो
ऐसे बीजांकुर बोऊँ
गौरवमयी संगीत ताल पर
वर्ण के नर्तन में खोऊँ

बांधू  नूपुर स्याह कलम को
दिखलाऊँ कविमय दिविता
टूटे पंखों से लिख दूँ मैं
बना लेखनी वो कविता

-निधि सहगल 'विदिता'




Friday, April 3, 2020

प्रतिशोध



बंजर होती धरती
करती रही पुकार,
रोते वन उपवन भी
भरते रहे गुहार।।

मूढ़ जन हो विलासी
तज रहे सृष्टि साथ
काँट छाँट धरती को
रक्तमयी कर हाथ
हरी भरी धरती का
करते अहित अपार
बंजर होती~~~

आहत धरती ले रही
अब अपना प्रतिशोध
दिए गए घावों का
करा रही अब बोध
सृष्टि की अवहेलना
पड़ा जन पर प्रहार
बंजर होती~~~

घर में बंद हुआ अब
बनता मानव दास
सृष्टि लेती साँस अब
हुआ अभिमान ह्रास
सीख लो अब समय से
करो कुछ सदविचार
बंजर होती~~~

-निधि सहगल 'विदिता'









Monday, March 2, 2020

विनती

पंख न काटो पिय मेरे तुम
छूने दो मुझे नभ का छोर,
अंधियारी रैन में मेरी
होने दो स्वप्नों की भोर।

पीत पड़े स्वप्न जो मेरे
रंग दूंगी फिर से मैं हरित,
साथ जो तुम दे दो पिया जी
कर दूंगी मैं उनको जीवित,
पंखों पर स्वप्नों को सजाकर
झूम झूम नाचूँ बन मोर,
पंख न काटो पिय मेरे तुम
छूने दो मुझे नभ का छोर।

हर क्षण अपना करके अर्पित
मैंने निभाये है वर्ष कई,
अब तुम मुझे भी दे दो पिया जी,
क्षण जो उम्मीद जगाए नई,
रंग भरूँ जिनमे सतरंगी
खिल जाए हर स्वप्न का कोर,
पंख न काटो पिय मेरे तुम
छूने दो मुझे नभ का छोर।

-निधि सहगल

छत की मुँडेर

मेरी छत की मुंडेर, चिड़ियों की वो टेर, इन वातानुकूलित डिब्बों में खो गई, बचपन के क़िस्सों संग अकेली ही सो गई, होली के बिखरे रंग फीके हैं पड़ गए...