Tuesday, December 24, 2019

आज़ादी मन की

भाग रही है वो,
अपने गुज़रे वक़्त की लकीरों को
हाथो से चेहरे पर मसलते हुए,
मिटाने की कोशिश में लगी,
इधर उधर बेहताशा भाग रही है,
दर्द से बिलख रही है,थक कर टूट रही है,
अपने ही ढील डोल को बेपरवाह करती,
भाग रही है वो,
डरती , घबराती, लोगों से छिपती छिपाती,
अपनी ही जिंदगी की किताब के पन्नों को फाड़ती,
भाग रही है वो,
तभी बेहोश हो धप्प सी धंस कर अपने ही बनाये गर्त में गिर जाती है,
बेचारी सी लगती , समाज की भेड़िया नज़रो की शिकार होने को तैयार,
खुद को समेटती है, फिर से खड़ी हो अपने कदमों पर
सामना करती है, शिकारी समाज का,
अरे ये क्या! समाज की तस्वीर तो उन लकीरों से भरी हुई है,
फिर क्यों भाग रही थी वो, ओढ़ लेती नकाब वो भी,
लकीरों को छिपाने के लिए,
अब भाग नहीं रही वो, साबित कर रही है खुद को
निर्दोष,
अपनी पहचान को दिखा, जो खो दी थी उसने,
जीत गई है वो हर उस लकीर से, हर डर से,
जो उसने खुद पैदा किया था,
आज़ाद है वो, जाबाज़ है वो।

-निधि सहगल

Monday, December 16, 2019

स्वयं भू

अंतस के सागर में डूबे ध्यान मग्न में लेटे केशव,
नैनों के नीले पटल से हर लेते कष्टों का भूधर,
विचलित ह्रदय की चंचलता को
देते अद्वैत का ज्ञान जो अगोचर,
रे मानव !किंचित तो झांको,
हरि पुकारे,हर क्षण भीतर।

दिव्य ज्योति जो बसती तन में,
दिखे नहीं पर रमती मन में,
सत्य जो चमके है ललाट पर,
उस ज्योति से ही प्राप्त कर,
जीवन पथ बनता है शिवकर
रे मानव !किंचित तो झांको,
हरि पुकारे,हर क्षण भीतर।

तू भी अमृत, मैं भी अमृत,
जीव का हर कण कण है अमृत,
केशव तुझमें, केशव मुझमें,
'अहं ब्रह्मास्मि ' भाव ही शुभकर
मन के पट खोल जो देखो,
मिलेंगे स्वयं भू के ही अणु कण,
रे मानव !किंचित तो झांको,
हरि पुकारे,हर क्षण भीतर।

-निधि सहगल
©feelingsbywords

Friday, December 6, 2019

नीर

नीर तो दिशा न जाने कोई
बहता अविरल भाव लेकर,
सूखे मन की रेतीली मिट्टी पर
बनाता पांव के चिन्ह गहरे,
कभी सत्य का सूर्य दिखाता,
कभी चांद की शीतल छाया,
कभी रोती लोरी बन जाता,
कभी हँसता जश्न मनाता,
बहता अक्षर बन दो नयनों से
बिन बोले ही सब कह जाता,
नीर तो दिशा न जाने कोई
बहता अविरल भाव लेकर।

निधि सहगल

छत की मुँडेर

मेरी छत की मुंडेर, चिड़ियों की वो टेर, इन वातानुकूलित डिब्बों में खो गई, बचपन के क़िस्सों संग अकेली ही सो गई, होली के बिखरे रंग फीके हैं पड़ गए...