Monday, November 25, 2019

छिलती लकीरों से बहती रवानी हो तुम,
दिख कर भी अनदेखी कहानी हो तुम,

ठिठुरते हाथों की मुस्कुराती शाम से लेकर,
सुबह की तपती जवानी हो तुम,

कुरबानीयत के ईनाम को तरसती,
प्यार भरी अल्हड़ दीवानी हो तुम,

ज़ुबां से बरसते कहर को पीती,
आँखों में दबा पानी हो तुम,

बनाती हो अपने अंदर ही एक दुनिया,
दुनिया के लिए बेगानी हो तुम,

तुम, तुम हो ही कहाँ इस बेदर्द दुनिया में,
तकती निग़ाहों की बेईमानी हो तुम।

-निधि सहगल
किस्मत से लड़ते अस्तित्व को हारते देखा,
तो मन कह उठा, "क्या यह है दुख!!"
थमती सांसों की धड़कन को मृत्यु के हाथों घुटते देखा,
तो मन कह उठा, "क्या यह है दुख!!"
प्रेम की चादर पर नफरत के धब्बों को लगते देखा,
तो मन कहे उठा, "क्या यह है दुख!!"
दर्द की अंत हीन सीमा को खुशी में घुलते देखा,
तो मन कह उठा, "क्या यह है दुख!!"
दुख तो बैठा था भीतर मन के,
खोज रहा न जाने क्यों बाहर तन के,
जब जाना कि सुख दुख तो हैं,
लिपटे मोह के धागे,
तो मन कह उठा, "अब न है कोई दुख।"

-निधि सहगल

Monday, November 18, 2019

स्मृति खग



अतीत का सिमटा स्मृति खग जब,
एक सूक्ष्म स्पर्श जो पाता,
अंगड़ाई ले ह्रदय व्योम में,
स्थूल रुप में पंख फैलाता।

घुमड़ घुमड़ कर मानस तल पर,
तीव्र उड़ान का आभास दिए,
कुंठित करता, कभी हँसता,
कभी भावों के चंचल मेघों में,
विविध रंगों सा घुलता जाता।

ले आता पलछिन के मेघ,
जो बीते दिवसों की नेह बरसाते,
झम-झम कर भिगोते मन को,
तन का रोम रोम सिहराता,
भरते जीवन के रिक्त कूपों को,
स्मृतियों का बवंडर छा जाता।

क्षणों के मद में डूबा स्मृति खग,
ज्यों ही यथार्थ से आ टकराता,
टूटता अतीत का मिथ्या दर्पण ,
वर्तमान प्रकाश का सूर्य चमकाता,
गिरता खग मानस पट पर,कराह कर,
पंख समेट फिर चिर में विस्मृत हो जाता।

-निधि सहगल

Friday, November 15, 2019

रचना


किताब में दबी उँगलियों में जब थिरकन हुई,
तो शब्द उलझकर लिपट गए,
नसों में तैरते हुए, हृदय के रंगमंच पर जा
करने लगे नृत्य,
भावनाओं का वाद्य वृंद भी देने लगा ताल,
मस्तिष्क की कोशिकाओं ने तालियों की गड़गड़ाहट कर दी स्वीकृति,
यही है वह रचना जो सुप्त थी मन सागर के धरातल में,
कर रही थी प्रतीक्षा, समय की करवट बदलने का,
आज अपने प्रदर्शन पर इतरा,
स्याही के रंग में निखर गई है पृष्ठ की धरा पर,
प्राप्त हो गई है अमृत्व को सदा के लिए।

-निधि सहगल

छत की मुँडेर

मेरी छत की मुंडेर, चिड़ियों की वो टेर, इन वातानुकूलित डिब्बों में खो गई, बचपन के क़िस्सों संग अकेली ही सो गई, होली के बिखरे रंग फीके हैं पड़ गए...