भाग रही है वो,
अपने गुज़रे वक़्त की लकीरों को
हाथो से चेहरे पर मसलते हुए,
मिटाने की कोशिश में लगी,
इधर उधर बेहताशा भाग रही है,
दर्द से बिलख रही है,थक कर टूट रही है,
अपने ही ढील डोल को बेपरवाह करती,
भाग रही है वो,
डरती , घबराती, लोगों से छिपती छिपाती,
अपनी ही जिंदगी की किताब के पन्नों को फाड़ती,
भाग रही है वो,
तभी बेहोश हो धप्प सी धंस कर अपने ही बनाये गर्त में गिर जाती है,
बेचारी सी लगती , समाज की भेड़िया नज़रो की शिकार होने को तैयार,
खुद को समेटती है, फिर से खड़ी हो अपने कदमों पर
सामना करती है, शिकारी समाज का,
अरे ये क्या! समाज की तस्वीर तो उन लकीरों से भरी हुई है,
फिर क्यों भाग रही थी वो, ओढ़ लेती नकाब वो भी,
लकीरों को छिपाने के लिए,
अब भाग नहीं रही वो, साबित कर रही है खुद को
निर्दोष,
अपनी पहचान को दिखा, जो खो दी थी उसने,
जीत गई है वो हर उस लकीर से, हर डर से,
जो उसने खुद पैदा किया था,
आज़ाद है वो, जाबाज़ है वो।
-निधि सहगल
अपने गुज़रे वक़्त की लकीरों को
हाथो से चेहरे पर मसलते हुए,
मिटाने की कोशिश में लगी,
इधर उधर बेहताशा भाग रही है,
दर्द से बिलख रही है,थक कर टूट रही है,
अपने ही ढील डोल को बेपरवाह करती,
भाग रही है वो,
डरती , घबराती, लोगों से छिपती छिपाती,
अपनी ही जिंदगी की किताब के पन्नों को फाड़ती,
भाग रही है वो,
तभी बेहोश हो धप्प सी धंस कर अपने ही बनाये गर्त में गिर जाती है,
बेचारी सी लगती , समाज की भेड़िया नज़रो की शिकार होने को तैयार,
खुद को समेटती है, फिर से खड़ी हो अपने कदमों पर
सामना करती है, शिकारी समाज का,
अरे ये क्या! समाज की तस्वीर तो उन लकीरों से भरी हुई है,
फिर क्यों भाग रही थी वो, ओढ़ लेती नकाब वो भी,
लकीरों को छिपाने के लिए,
अब भाग नहीं रही वो, साबित कर रही है खुद को
निर्दोष,
अपनी पहचान को दिखा, जो खो दी थी उसने,
जीत गई है वो हर उस लकीर से, हर डर से,
जो उसने खुद पैदा किया था,
आज़ाद है वो, जाबाज़ है वो।
-निधि सहगल
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