Tuesday, October 1, 2019

प्रतीक्षा

एक रात्रि प्रतीक्षा आई,
प्रभु द्वार पर गुहार लगाई,
खोलो द्वार, हे नाथ जगत के,
क्यों है बुझे दीप सत्य के,
प्रभु ने सुनकर मर्म दुहाई,
प्रतिक्षा पर दया दिखाई,
बोले ," क्यों हो व्याकुल पुत्री,
किसने तुम्हारी दुविधा बढ़ाई?"
अश्रु भर नैनों में प्रतिक्षा,
बोली ,"नाथ करो अब रक्षा।
मानव को बना कर सर्वोत्तम,
दे कर उसे मस्तिष्क अति उत्तम
की आपने कैसी यह भूल!!
चुभा रहा वो सबको शूल।
मैं हूँ धैर्य की छोटी बहना,
मुझसे मानव का अब न लेना देना,
करने अपने स्वार्थ की पूर्ति,
हर क्षण है उसके मन में आपूर्ति,
बिना ऋतु के फल वो उगाए,
मेरे गुण को किंचित न अपनाए,
चाहे हो मन का व्यवहार या हो कोई
इच्छा अपार,
प्रतीक्षा का अर्थ न जाने,
धर्म अधर्म का भेद न माने,
कुछ तो करे आप हे प्रभुवर,
कर रहे ये जीवन को दूभर।"
सुनकर प्रतीक्षा की विपदा सारी,
बोले प्रभु ,न डरो तुम प्यारी,
मैंने जो ये प्रकृति रचाई,
निश्चित समय की रीति बनाई,
जो न इसका मान रखेगा,
स्वयं ही मुँह के बल वो गिरेगा।
धैर्य है तुम्हारी बहन ,लाडली,
उसने भी है गाँठ बांध ली
जो न उसकी कद्र करेगा,
प्रकृति संग जो अभद्र करेगा,
करेगी उसका वो विरोध,
मानव से लेगीं प्रतिशोध,
तुम्हें भी ये अधिकार प्राप्त है,
जन जीवन का सुधार प्राप्त है।
जाओ अपनी शक्ति दिखाओ,
जन को दुर्गुण को मुक्ति दिलाओ।

©निधि सहगल




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