बंजर होती धरती
करती रही पुकार,
रोते वन उपवन भी
भरते रहे गुहार।।
मूढ़ जन हो विलासी
तज रहे सृष्टि साथ
काँट छाँट धरती को
रक्तमयी कर हाथ
हरी भरी धरती का
करते अहित अपार
बंजर होती~~~
आहत धरती ले रही
अब अपना प्रतिशोध
दिए गए घावों का
करा रही अब बोध
सृष्टि की अवहेलना
पड़ा जन पर प्रहार
बंजर होती~~~
घर में बंद हुआ अब
बनता मानव दास
सृष्टि लेती साँस अब
हुआ अभिमान ह्रास
सीख लो अब समय से
करो कुछ सदविचार
बंजर होती~~~
-निधि सहगल 'विदिता'
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 06 एप्रिल 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteआपका हार्दिक आभार आदरणीया
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