Monday, November 25, 2019

किस्मत से लड़ते अस्तित्व को हारते देखा,
तो मन कह उठा, "क्या यह है दुख!!"
थमती सांसों की धड़कन को मृत्यु के हाथों घुटते देखा,
तो मन कह उठा, "क्या यह है दुख!!"
प्रेम की चादर पर नफरत के धब्बों को लगते देखा,
तो मन कहे उठा, "क्या यह है दुख!!"
दर्द की अंत हीन सीमा को खुशी में घुलते देखा,
तो मन कह उठा, "क्या यह है दुख!!"
दुख तो बैठा था भीतर मन के,
खोज रहा न जाने क्यों बाहर तन के,
जब जाना कि सुख दुख तो हैं,
लिपटे मोह के धागे,
तो मन कह उठा, "अब न है कोई दुख।"

-निधि सहगल

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